यह भी पढ़ें

छूट गइल जबसे घरवा-रिशु कुमार गुप्ता

मन करत रहे पहिले जाए के दूर हो,
रहे ओह घरी घूमे फिरे के सुरूर हो,
घर के काम में पहिले झींक बड़ा लागे,
निकले में बहरी निक बड़ा लागे।

पढ़े के मौका जब मिलल
तब अइनी पटना शहरवा,
बाड़ा याद आवेला
छूट गइल जबसे घरवा।

बा एहिजा टिप टाप
बा शहर एकदम मस्त हो,
बड़ बड़ बिल्डिंग पार्क
घूमे के जगहा जबदस्त हो।

पढ़ेवाला लइकन के
एहीजा बहुते भीड़ बा,
नोकरी के तैयारी करस लो
कमाए के चिंता फिकिर बा।

ना निक लागे हमरा शहर बाजार
ना ठीक लागे रहल रूम भीतरवा,
बाड़ा याद आवेला
छूट गइल जबसे घरवा।

कॉलेज में हाज़िरी लगावल
हो गइल बा जरुरी,
घामा में आइल गइल
हो गइल बा मजबूरी।

पढ़ाई लिखाई ओतने होता
जेतना होत रहे गांवे,
एक दू घंटा खाना बने में
दूनो बेरा लगावे।

मैगी रोटी राती में खाई
रोजे दाल भात सबेरवा,
बाड़ा याद आवेला
छूट गइल जबसे घरवा।

पढ़त पढ़त मन जब उबियाला
तनिका सा समय बिताईला,
केहू नइखे साथी संघाती
केवाड़ी जांगला से बतियाइला।

जब भी फोन आवे घरे से
आवे के कहेके जोर नाही परे,
बड़ हो गइल बानी जब से
त अखियां से लोर नाही झरे।

पापा साथे काम याद परे
माई हाथ के दाल भात अचरवा,
बाड़ा याद आवेला
छूट गइल जबसे घरवा।

आपको यह भी पसंद आएगा