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आदमी आदमी के नज़र – मुकेश यादव ‘भावुक’

आदमी आदमी के नज़र में फेर हो गइल,
सांझ के सुख बीतल, आ सवेर हो गइल.

भूख से बेहाल , दरिया किनारे मर गइल,
सगरो गांव हाला बा, हाय उ त तर गइल.

घाम दुपहरी जेठ के, अइसन भइल अनेत,
चूरूआ भर पानी मिलल,ओहू में रेते रेत.

बेर-बेर अनेत के, अइसे ‘भावुक’ धर न गोड़,
जहिया रसरी टूट गइल, जुड़ी न कवनों जोड़.

रुपिया तोहरा मुट्ठी में, मन में कइसन झगड़ा बा,
अइसन नोकरी शहर के, सांसन पर भी पहरा बा.

बाहर-बाहर खूब सजावट, अंदर खाली कमरा बा,
महतारी के जीव जरेला, बबुआ घर से बहरा बा.

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