केतनो रोई बाकिर अखिया लोरात नइखे !
दुःख दईबा रे जिनगी से ओरात नईखे !
कर देहलस बेभरम महंगाई आदमी के,
बोझ जिनगी के ढोवले ढोवात नइखे !
कबो बाढ़ आईल त कबो सुखाड़ ले गईल,
अब खेत कौनो मन से बोवात नइखे !
खेतिहर मौसम के मार से टुअर-टॉपर भईल,
महल मड़ई पर तनको मोहात नइखे !
जहिया रहे जरूरत त तकबो न कईलेन,
आज बेमतलब के सटल सोहात नइखे !
नूरैन भीतर के मार लोग भीतर सहत बा,
सगरी बात पंच के आगे खोलात नइखे !