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जबसे गाँव के माटी छूटल – नूरैन अन्सारी

जबसे गाँव के माटी छूटल.
मत पुछी का थाती छूटल.

भेषभूषा हो गइल शहरी,
खान-पान देहाती छूटल.

बेमतलब के बढ़ल टेन्शन,
हँसे के परिपाटी छूटल.

ऐगो रोज़ नया बेमारी धरे,
देहि पुरानका खाँटी छूटल.

चकचक बा शहर मे सभे,
गाँव के घर के टाटी टूटल.

केहु के बात ना माने केहु,
दादा जी के लाठी छूटल.

दुख दरद केकरा से कहीं,
दोस्त,यार, संघाती छूटल.

नूरैन गाँव के सिवान में ही,
सब दिन शुरुआती छूटल.

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