कईसे कटी पूष के रात,
सोची सोची बा मन डेरात।
घर में नईखे इको दाना,
बटुली में बचल बा बसिया भात,
कईसे कटी पूष के रात,
जाड़ के मारे बदन कठुआईल ।
ना जुरल पईसा न कंबल किनाईल ।
पड़े शीतलहरी बाजे दात,
कबले पुवरा जान बचाई ।।
का करीहे दई कुछू नईखे बुझात,,
कईसे कटी पूष के रात,
कईसे कटी पूष के रात,
फुटल रोवा तन भईल कठोर,
अकड़ गईल अंगूरी जईसे ऊखी के पोर,
रात दिन जवन फसल रखवनी,
उही चोरा के ले गईल चोर ।।
टुकुर टुकुर देखत रह गईनी लेके हाथ में जात,
कईसे कटी पूष के रात,
कईसे कटी पूष के रात,
लेले रही कर्जा जवन फसल बोआई में,
ऊहो उठी गईल हमारा खांसी के दवाई में,
कर्जदार खेत कब्जा कईले,
अब हमे खाना खियाई के ।।
गाय मरल पाला से बानी हम पछतात,
कईसे कटी पूष के रात,
कईसे कटी पूष के रात,
कहीला विधाना “राजू” कर जोर,
तोहर बनावल अंहार आज़ोर।
निर्धन के तूही रखवाला,
कदा प्रभू अब जल्दी भोर ।।
तोहरे शिवा न केहू हमर बा नात,
कईसे कटी पूष के रात,
कईसे कटी पूष के रात,