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कोख लुटाइल महतारी के अंतरात्मा : विजय दिवस

आज विजय दिवस पर भोजपुरी कवि श्री मनोज सिंह ‘भावुक’ के रचना 4 भाग मे पढ़ल जाव, ई कविता विजय दिवस के ठीक बाद (1999) भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका मे प्रकाशित भइल रहे.

बबुआ रे……………..
ई देश-विदेश काहे बनल
काहें बन्हाइल बाँध सरहद के।

दुनिया के ऊपर,
एके गो छत…………….. आसमान
आ एके गो जमीन………. धरती
के कइलस टुकड़ा-टुकड़ा……..?
झगड़ा के गाछ के लगावल….
के बनावल नफरत के किला?
का दो ‘धरती’ माई हई
…….. माइयो टुकी-टुकी?

लड़े वाला भाईये नू…… दुनु देशभक्त।
देशभक्ति माने….भाई के खून….बहिन के शीलहरण
….माई के कोख लूटल…भउजी के मांग धोअल……।
हाय रे हाय….. खून के धारा।

मानवता के राग ध के रोये के नाम देशभक्ति ह….. का रे बबुओ।
लोग कहता कि हमार कोख लुटाइल नइखे…’अमर हो गइल बा।’

तू मुअल नइख….अमर हो गइल ।
सरहद पर लड़े वाला…मरबे ना करे…मरिओ के अमर हो जाला

अमरे होखे खातिर….सरहद बनावल गइल बा… का…. ए हमार बाबू?

खैर अबो देश-विदेश में शांति कायम हो जाव
त बुझेम… जे ई जिनिगी सुकलान हो गइल।
….बाकी ए हमार बाबू…….
उन्नीस सौ सैंतालिस में तहरा
दादियो के मांग धोआ के अमर हो गइल रहे
आ एकहत्तर में तहार बाबूजी शहीद भइलन
त हमरो मांग धोआ के अमर हो गइल

आ अब तहरा मेहरारूओ के मांग धोआ के अमर हो गइल।

…..बाकिर एह नब्बे बरिस के बूढ़ के कहीं शांति ना लउकल

‘अंतराष्ट्रीय शांति’.

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