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मन काहें अकुताइल बा – मुकेश यादव

भीतरे भीतर घवाहिल बा,
बात समझ मे आइल बा
नेह वेह से सब दूर भइल
मन काहें अकुताइल बा।

चोरन के अब ज़ोर भइल,
भीतरे भीतर शोर भइल,
मुह गिरा के बइठल बाड़,
का मन के चोर धराईल बा?

आके बईठ पास मे हमरी
नज़र चोरा भागेल कगरी
थाती तोहके सब दे देहब,
काहे मुह झुराइल बा ?

अइसन तोहार खिलवना रहे,
बाकी हमार बिछवना रहे,
रात रात भर जागत रहनी,
काहें अब देह पिराइल बा?

इश्क़ विश्क सब बेमानी ह,
कुछ हमरो भी नादानी ह,
‘भावुक’ मन ना बुझे पावे,
कईसन ई प्रीत बन्हाइल बा?

भीतरे भीतर घवाहिल बा,
बात समझ मे आइल बा
नेह वेह से सब दूर भइल
मन काहें अकुताइल बा।

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